गुरु द्रोणाचार्य की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें यहांं दिए थे दर्शन


देहरादून।  गुरु द्रोणाचार्य की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उन्हें यहांं टपकेश्वर में दर्शन दिए थे। गुरु द्रोण के अनुरोध पर ही भगवान शिव जगत कल्याण को लिंग के रूप में स्थापित हो गए। इसके बाद द्रोणाचार्य ने शिव की पूजा की और अश्वत्थामा का जन्म हुआ। अश्वत्थामा ने मंदिर की गुफा में छह माह एक पांव पर खड़े होकर शिव की तपस्या की और जब भगवान प्रकट हुए तो उनसे दूध मांगा। इस पर प्रभु ने शिवलिंग के ऊपर स्थित चट्टान में गऊ स्तन बना दिए और दूध की धार बहने लगी। तब भगवान शिव का नाम दूधेश्वर था। कलियुग में दूध की धार जल में परिवर्तित हो गई, जो निरंतर शिवलिंग पर गिर रही है। इस कारण नाम टपकेश्वर पड़ गया। महादेव ने यहीं देवताओं को देवेश्वर के रूप में दर्शन दिए थे। देश ही नहीं बल्कि विदेशों से भी श्रद्धालु और पर्यटक भगवान टपकेश्वर के दर्शन को यहां आते हैं। पूरे श्रावण मास यहां मेले जैसा माहौल रहता है। मान्यता है कि भांग, बिल्वपत्र, धतूरा, दूध आदि से महादेव का अभिषेक करने से सभी मनोकामना पूर्ण होती है। टपकेश्‍वर महादेव मंदिर एक लोकप्रिय गुफा मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यह देहरादून शहर के बस स्टैंड से 5.5 किमी दूर स्थित तमसा नदी के तट पर स्थित है। टपक एक हिन्दी शब्द है, जिसका मतलब है बूंद-बूंद गिरना। यह कहा जाता है कि मंदिर में एक शिवलिंग है और गुफा की छत से पानी स्‍वाभाविक रूप से टपकता रहता है। एक पौराणिक कथा के अनुसार इस गुफा मंदिर के माध्यम से भगवान शिव दूध का निर्माण किया था, जो गुरु द्रोर्णाचार्य के पुत्र अश्‍वत्‍थामा को दिया था। यह कथा महाकाव्‍य महाभारत में लिखी है। मंदिर के चारों ओर सल्‍फर का झरना है, अत: यहां से आने वाले पानी में औषधीय गुण होते हैं। कहा जाता है कि महाभारत युद्ध से पूर्व गुरु द्रोणाचार्य अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए हिमालय पहुंचे। जहां उन्होंने एक ऋषिराज से पूछा कि उन्हें भगवान शंकर के दर्शन कहां होंगे। मुनि ने उन्हें गंगा और यमुना की जलधारा के बीच बहने वाली तमसा (देवधारा) नदी के पास गुफा में जाने का मार्ग बताते हुए कहा कि यहीं स्वयंभू शिवलिंग विराजमान हैं। जब द्रोणाचार्य यहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि शेर और हिरन आपसी बैर भूल एक ही घाट पर पानी पी रहे थे। उन्होंने घोर तपस्या कर शिव के दर्शन किए अौर उन्होंने शिव से धर्नुविद्या का ज्ञान मांगा। कहा जाता है कि भगवान शिव रोज प्रकट होते और द्रोण को धर्नुविद्या का पाठ पढ़ाते। द्रोण पुत्र अश्वत्थामा की जन्मस्थली भी यही है। उन्होंने भी यहां छह माह तक एक पैर पर खड़े होकर कठोर साधना की थी। एक और मान्यता है कि टपकेश्वर के स्वयं-भू शिवलिंग में द्वापर युग में दूध टपकता था, जो कलयुग में पानी में बदल गया। आज भी शिवलिंग के ऊपर निरंतर जल टपकता रहता है। यहां अन्य देवी-देवताओं की प्रतिमाएं भी स्थापित हैं। कहा जाता है कि श्रद्धालू सच्चे मन से इस स्थान पर विधिवत पूजा कर भगवान शिव से प्रार्थना करता है तो उसकी मनोकामना जरूर पूरी होती है। ऐसी अनेकों मान्यताएं भगवान टपकेश्वर के इस स्थान से जुड़ी हैं, जो अद्भुत हैं अलौकिक हैं। द्रोणपुत्र अश्वत्थामा की जन्मस्थली और तपस्थली भी यही मंदिर है। जहां आचार्य द्रोण और उनकी पत्नी कृपि की पूजा अर्चना से खुश होकर शिव ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया था। इसके बाद उनके यहां अश्वत्थामा का जन्म हुआ। मान्यता ये भी है कि अश्वत्थामा की दूध पीने की इच्छा और उनकी माता कृपि से उनकी इच्छा की पूर्ति न होने पर जब अश्वत्थामा ने घोर तप किया तब भगवान भोलेनाथ ने उन्हें वरदान के रूप में गुफा से दुग्ध की धारा बहा दी। तब से यूं ही दूध की धारा गुफा से शिवलिंग पर टपकती रही और कलियुग में इसने जल का रूप ले लिया। इसलिए यहां भगवान भोलेनाथ को टपकेश्वर कहा जाता है। मान्यता यह भी है कि अश्वत्थामा को यहीं भगवान शिव से अमरता का वरदान मिला। उनकी गुफा भी यहीं है जहां उनकी एक मूर्ति भी विराजमान है।


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