उत्तराखंड के प्रसिद्ध सिद्धपीठों में से एक मां चंद्रबदनी का मंदिर


देहरादून। मां चंद्रबदनी का मंदिर उत्तराखंड के सिद्धपीठों में से एक है। चंद्रबदनी सिद्धपीठ टिहरी जिले के हिंडोलाखाल विकासखंड में चंद्रकूट पर्वत पर समुद्र तल से 8000 फुट की ऊंचाई पर स्थित है। चंद्रकूट पर्वत पर रात में गंधर्व, अप्सराएं मां के दरबार में नृत्य और गायन करती हैं।


श्री चंद्रबदनी सिद्धपीठ की स्थापना की पौराणिक कथा मां सती से जुड़ी हुई है। एक बार सती के पिता राजा दक्ष ने यज्ञ का आयोजन किया, जिसमें उन्होंने भगवान शंकर को छोड़ देवता, ऋषि, मुनि, गंधर्व सभी को आमंत्रित किया। सती ने भगवान शंकर से वहां साथ जाने की इच्छा जाहिर की। भगवान शंकर ने उन्हें वहां न जाने की सलाह दी, परंतु वह मोहवश अकेली चली गईं। सती की मां के अलावा किसी ने भी वहां सती का स्वागत नहीं किया। यज्ञ मंडप में भगवान शंकर को छोड़कर सभी देवताओं का स्थान था। सती ने भगवान शंकर का स्थान न होने का कारण पूछा तो राजा दक्ष ने उनके बारे में अपमानजनक शब्द सुना डाले। जिस पर गुस्से में सती यज्ञ कुंड में कूद गईं। सती के भस्म होने का समाचार पाकर भगवान शिव वहां आए और दक्ष का सिर काट दिया। भगवान शिव विलाप करते हुए सती का जला शरीर कंधे पर रख कर तांडव करने लगे। उस समय प्रलय जैसी स्थिति आ गई। सभी देवता शिव को शांत करने के लिए भगवान विष्णु से आग्रह करने लगे। तब भगवान विष्णु ने अपना अदृश्य सुदर्शन चक्र शिव के पीछे लगा दिया। जहां-जहां सती के अंग गिरे वे स्थान शक्तिपीठ कहलाए। मान्यता है कि चंद्रकूट पर्वत पर सती का बदन (शरीर) गिरा, इसलिए यहां का नाम चंद्रबदनी पड़ा। कहते हैं कि आज भी चंद्रकूट पर्वत पर रात में गंधर्व, अप्सराएं मां के दरबार में नृत्य और गायन करती हैं। यहां के पुजारी बताते हैं, मंदिर में मूर्त नहीं, श्रीयंत्र है। रावल यानी पुजारी भी आंखें बंदकर या नजरें झुकाकर श्रीयंत्र पर कपड़ा डालते हैं। मान्यता है कि यदि आंखें बंद न हों तो चुंधिया जाएंगी। गर्भगृह में एक शिला के ऊपर उत्कीर्ण यंत्र पर चांदी का छत्र अवस्थित है। कहा यह भी जाता है कि आदिगुरु शंकराचार्य ने श्रीयंत्र से प्रभावित होकर चंद्रकूट पर्वत पर चंद्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी। चंद्रबदनी सिद्धपीठ ऋषिकेश से देवप्रयाग के रास्ते यहां पहुंचा जा सकता है। देवप्रयाग-टिहरी मोटर मार्ग पर करीब 28 किलोमीटर की दूरी पर पहाड़ी कस्बा जामणीखाल है, जहां से ऊपर की ओर कच्ची सड़क है। यहां का सफर हर किसी के लिए यादगार बन जाता है। ऊंची पहाडिय़ों और घने जंगलों से गुजरते हुए कुदरती नजारे मुग्ध कर देते हैं। मंदिर के निकट यात्रियों के विश्राम और भोजन की समुचित व्यवस्था है। वैसे तो हर दिन दूर-दूर से श्रद्धालु यहां आते हैं, पर नवरात्रों में श्रद्धालुओं की संख्या हजारों में पहुंच जाती है। अप्रैल महीने में हर साल यहां मेला लगता है, जिसमें हजारों श्रद्धालु माता के जयकारे लगाते पैदल मार्ग से यहां पहुंचते हैं। यहां की महिमा अपरंपार है। मान्यता है कि यहां आने वालों की हर मुराद पूरी होती है। जनश्रुति है कि आदि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने श्रीनगरपुरम् (श्रीनग) जो श्रृंगीऋषि की तपस्थली भी रही है, श्रीयंत्र से प्रभावित होकर अलकनन्दा नदी के दाहिनी ओर उतंग रमणीक चन्द्रकूट पर्वत पर चन्द्रबदनी शक्ति पीठ की स्थापना की थी। मंदिर में चन्द्रबदनी की मूर्ति नहीं है। देवी का यंत्र (श्रीयंत्र) ही पुजारीजन होना बताते हैं। मंदिर गर्भ गृह में एक शिला पर उत्कीर्ण इस यंत्र के ऊपर एक चाँदी का बड़ा छत्र अवस्थित किया गया है। पद्मपुरण के केदारखण्ड में चन्द्रबदनी का विस्तृत वर्णन मिलता है। मंदिर पुरातात्विक अवशेष से पता चलता है कि यह मंदिर कार्तिकेयपुर, बैराठ के कत्यूरी व श्रीपुर के पँवार राजवंशी शासनकाल से पूर्व स्थापित हो गया होगा। इस मंदिर में किसी भी राजा का हस्तक्षेप होना नहीं पाया जाता है। सोलहवीं सदी में गढ़वाल में कत्यूरी साम्राज्य के पतन के पश्चात् ऊचूगढ़ में चैहानों का साम्राज्य था। उन्हीं के पूर्वज नागवंशी राजा चन्द्र ने चन्द्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी। जनश्रुति के आधार पर चाँदपुर गढ़ी के पँवार नरेश अजयपाल ने ऊचूगढ़ के अन्तिम राजा कफू चैहान को परास्त कर गंगा के पश्चिमी पहाड़ पर अधिकार कर लिया था। तभी से चन्द्रकूट पर्वत पर पँवार राजा का अधिपत्य हो गया होगा। 1805 ई0 में गढ़वाल पर गोरखों का शासन हो गया। तब चन्द्रबदनी मंदिर में पूजा एवं व्यवस्था निमित्त बैंसोली, जगठी, चैंरा, साधना, रित्वा, गोठ्यार, खतेली, गुजेठा, पौंसाड़ा, खाखेड़ा, कोटी, कंडास, परकण्डी, कुनडी आदि गाँवों की भूमि मिली थी। चन्द्रबदनी मंदिर बांज, बुरांस, काफल, देवदार, सुरई, चीड़ आदि के सघन सुन्दर वनों एवं कई गुफाओं एवं कन्दराओं के आगोश में अवस्थित है। चन्द्रबदनी में पहुँचने पर आध्यात्मिक शान्ति मिलती है। अथाह प्राकृतिक सौन्दर्य, सुन्दर-सुन्दर पक्षियों के कलरव से मन आनन्दित हो उठता है। चित्ताकर्ष एवं अलौकिक यह मंदिर उत्तराखण्ड के मंदिरों में अनन्य है। यहाँ से चैखम्भा पर्वत मेखला, खैट पर्वत, सुरकण्डा देवी, कुंजापुरी, मंजिल देवता, रानीचैंरी, नई टिहरी, मसूरी आदि कई धार्मिक एवं रमणीक स्थल दिखाई देते हैं। वन प्रान्त की हरीतिमा, हिमतुंग शिखर, गहरी उपत्यकायें, घाटियां व ढलानों पर अवस्थित सीढ़ीनुमा खेत, नागिन सी बलखाती पंगडंडियां, मोटर मार्ग, भव्य पर्वतीय गाँवों के अवलोकन से आँखों को परम शान्ति की प्राप्ति होती है। श्रधालुओं के लिए नैखरी में गढ़वाल मण्डल विकास निगम को पर्यटक आवास गृह, अंजनीसैंण में श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के अलावा कई होटल व धर्मशालाएं भी हैं।



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