आयुर्वेद विशेषज्ञ आचार्य मनीष ने महामारी व जादुई इलाज कानूनों को पुराना और आयुर्वेद विरोधी बताया

-इनमें संशोधन या इन्हें समाप्त करने की मांग उठायी

देहरादून। प्रसिद्ध आयुर्वेद विशेषज्ञ आचार्य मनीष ने कहा कि आयुर्वेद का प्रसार करने के लिए एपिडेमिक एक्ट और मैजिक रेमेडी एक्ट में संशोधन करने या इन्हें समाप्त करने की जरूरत है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध विशेषज्ञ आचार्य मनीष ने, जो 1997 से भारत के 5,000 साल पुराने जड़ी-बूटी आधारित औषधीय उपचार विज्ञान का प्रचार-प्रसार करते आ रहे हैं, दो प्राचीन और आयुर्वेद-विरोधी चिकित्सा कानूनों में संशोधन करने या इन्हें रद्द करने का आह्वान किया है। उनके निशाने पर दो कानून हैं- 1897 का महामारी अधिनियम और 1954 का मैजिक रेमेडी एक्ट। उल्लेखनीय है कि आचार्य मनीष आयुर्वेदिक लेबल श्शुद्धि श् के संस्थापक हैं, जिसका मुख्यालय चंडीगढ़ के पास जीरकपुर में है और जिसकी देश भर में 150 से अधिक शाखाएं हैं।
आचार्य मनीष ने कहा दुर्भाग्य से भारत अभी भी ब्रिटिश युग की काली मानसिकता के साथ जी रहा है। आज भी, हमारे यहां 1897 का महामारी अधिनियम जैसा कानून लागू है, जिसे अंग्रेजों ने आयुर्वेद और इसके वैद्यों को काबू में रखने के लिए बनाया था। वर्ष 1890 के दशक में जब प्लेग ने देश को प्रभावित किया था, वैद्यों ने बड़ी सरलता से अपने देसी नुस्खों से इसका इलाज किया था, जो अंग्रेजों को रास नहीं आया, क्योंकि इससे भारत में एलोपैथी और इसके विस्तार पर उल्टा असर हुआ। इसीलिए उन्होंने भारत में महामारी अधिनियम लागू कर दिया। इस कानून के तहत वैद्यों के खिलाफ मामले दर्ज होने शुरू हो गये और उन्हें जेल में डाला गया। आचार्य मनीष ने कहा, श्इस सबके पीछे उनकी सोच यह थी कि आयुर्वेद को एक अवैज्ञानिक और पिछड़ी चिकित्सा पद्धति घोषित कर दिया जाये। इस अधिनियम की आड़ में, अंग्रेजों ने भारत से आयुर्वेद को खत्म करने की साजिश रची। महामारी अधिनियम अभी भी मौजूद है और यह केवल एलोपैथी के उपयोग को बढ़ावा देता है। अब इसे बदलने की जरूरत है। इस अधिनियम की समीक्षा होनी चाहिए। इसे हटाया जाना चाहिए, ताकि आयुर्वेद को एलोपैथी के समान दर्जा मिल सके। यहां तक कि 1954 का मैजिक रेमेडी एक्ट भी आचार्य मनीष के निशाने पर आ गया है। वह कहते हैं, श्किसी बीमारी के मूल कारण का इलाज करने वाले आयुर्वेद में कई प्रभावी उपचार होने के बावजूद, मैजिक रेमेडी एक्ट हमें इन विधियों के बारे में बात करने की अनुमति नहीं देता है। एक आयुर्वेदिक चिकित्सक किसी भी बीमारी पर स्वतंत्र रूप से बात नहीं कर सकता है, दूसरी ओर, एलोपैथी के विशेष उपचारों और एलोपैथिक अस्पतालों को बड़े पैमाने पर अपना प्रचार-प्रसार करने की खुली छूट है। एलोपैथी और आयुर्वेद के तहत अपनायी जाने वाली प्रणालियों के बीच अनेक अंतर हैं। जहां एलोपैथी रोग के लक्षणों को दूर करने पर काम करती है, वहीं आयुर्वेद रोग को जड़ से समाप्त करने का प्रयास करता है। आचार्य मनीष ने बताया कि मेडिकल बीमा की सुविधा के चलते एलोपैथिक अस्पतालों को आसानी से मरीज मिलते रहते हैं, जबकि आयुर्वेदिक अस्पतालों और क्लीनिकों को ऐसी कोई सहूलियत नहीं मिलती है। जिस देश में आयुर्वेद का जन्म हुआ, वहीं आयुर्वेद के प्रति सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है, श् आचार्य मनीष का सवाल है। आचार्य मनीष ने बताया कि एलोपैथी में शरीर के विभिन्न अंगों के विशेषज्ञ होते हैं, जबकि आयुर्वेद में शरीर को समग्र रूप से देखा जाता है। आचार्य मनीष को लगता है कि कोविड काल ने आयुर्वेद को फिर से चर्चा में ला दिया है। अब पुराने कानूनों को संशोधित करने या उन्हें खत्म करने का सही समय आ गया है। आचार्य मनीष ने कहा, हमारी टीम इस मामले में राहत पाने के लिए न्यायपालिका से संपर्क करने की योजना बना रही है। हम ऐसे पुराने कानूनों के संशोधन या उनकी समाप्ति की मांग उठाएंगे, जिनके कारण आयुर्वेद के विकास बाधाएं आ रही हैं।


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