जब तक गगन में सूरज चाॅद रहेगा, सुमन अमर तुम्हारा नाम रहेगा

हेमचंद्र सकलानी विकासनगर। विश्व में समय समय पर कुछ ऐसी विभूतियों ने जनम लिया जो अल्प आयु में अपने महान कार्यों से, समाज के लिए तथा अपनी जन्म भूमि के लिए दी गई अपनी शहादत से हमेशा के लिए अमर हो गये। जैसे बंगाल में जन्मे यतीन्द्र नाथ दास जो मात्र पच्चीस वर्ष की अल्प आयु में शहीद हो गये थे और आयरलैंड में जनमें क्रांतिकारी मैक्सिविनी जिन्होंने 70 दिन का आमरण अनशन किया फिर अंत में अपने देश के लिए बलिदान हो गये। ऐसे अनेक महान पुरूषों के सम्पूर्ण जीवन का अध्ययन करने से पता चलता है जैसे उनका जन्म ही अपने क्षेत्र और समाज के उत्थान के लिये हुआ हो। क्योंकि अपने जीवन का एक दिन भी इन्होंने कभी सुख, शाॅंति से नहीं व्यतीत किया। चाहे महात्मा गाँधी रहे हों, लाला लाजपत राय रहे हों, भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद या सुभाष चन्द्र बोस रहे हों। इसी क्रम में एक नाम गढ़वाल के प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी श्रीदेव सुमन का आता है। यद्यिपि वे टिहरी को सामन्तशाही से मुक्त होते न देख सके पर आज उन्हें स्मरण करते बरबस किसी कवि की पंक्तियाॅ स्मरण हो आती हैं – ‘‘अगर जिंदगी है तो ख्वाब हैं, ख्वाब हैं तो मंजिलें हैं, मंजिले हैं तो रास्ते हैं, रास्ते हैं तो मुश्किलें हैं, मुश्किलें हैं तो हौसला है, हौसला है तो विश्वास है, विश्वास है तो जीत है।‘‘ संघषरर्त रहते यदि इन सब सेनानियों ने शक्तिशाली शक्तियों के विरूद्ध यदि पराजय स्वीकार कर ली होती तो हम आज के दिनों की अपनी स्वतन्त्रता की कल्पना भी नही कर सकते थे। गढ़वाल देश के विभाजन के बाद बिट्रिश गढ़वाल पौड़ी ने जहाॅ अपनी विकास की गाथा लिखी वहीं सामन्त शाही और राजतन्त्र की क्रूरता को झेलता टिहरी केवल राजशाही के कारिन्दों को छोड़ और किसी का भला न कर सका। इन्ही परिस्थितियों में श्रीदेव सुमन को संघर्ष की प्रेरणा मिली। सुमन जी का जनम 25 May 1916 को टिहरी के बहुत पिछड़े गाॅव जौल (चम्बा) में हुआ था। उनके पिता इलाके के प्रख्यात वैद्य थे। पंडित हरिराम बड़ोनी और श्रीमती तारा देची के घर जिस बालक ने जनम लिया तब किसी ने कल्पना भी नहीं की थी टिहरी की राजशाही से मुक्ति दिलाने वाले महापुरूष ने जन्म ले लिया है। जन्म लिये सुमन को तीन वर्ष भी नहीं हुए थे कि पिता पं हरिराम बड़ोनी स्वर्ग सिधार गये। गढ़वाल देश का एक ऐसा क्षेत्र था जहाॅ हर दृष्टिकोण से अभाव, संकटों, दुख, दर्द, गरीबी, के भंडार के साथ अशिक्षा, जल, चिकित्सा, तथा अनाज का अभाव ही अभाव था। प्राथमिक शिक्षा चम्बा के बाद फिर टिहरी से मिडिल की परीक्षा पास की। कुछ दिन अध्यापक का कार्य किया। बाद में उस समय की रत्न भूषण, प्रभाकर, विशारद, साहित्य रत्न की परीक्षाओं में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग से सम्मानीय स्थान प्राप्त किया। इसी बीच सुमन जी ने देवनागरी विद्यालय की स्थापना तथा सन 1938 में ‘गढ सेवा संघ‘ गढ़़वाल की दिल्ली में की। जनता की तत्कालीन परिस्थितियों और राजशाही की निरंकुशता का आप पर गहरा प्रभाव पड़ता जा रहा था जिस कारण अनेक स्थानों की यात्रा की देश के महान पुरूषों विशेषकर श्रीनगर के अधिवेशन में पं जवाहर लाल नेहरू तो वर्धा में महात्मा गाँधी जी से मिलने गये, तथा कालेकर जैसे महापुरूषों का सान्निध्य प्राप्त हुआ और उनके सामने गढ़वाल की जनता की समस्याओं और राजशाही की तानाशाही को रखा। यह कटु सत्य है कि अभाव संकट गरीबी ही एक सीधे सच्चे सरल ईमानदार और संवेदनशील व्यक्ति को लेखक, कवि, साहित्यकार बनने को प्रेरित करती है। स्वाभाविक था इस कारण साहित्य की ओर सुमन का रूझान हुआ। तब आपने ‘हिन्दी पत्र बोध‘ नामक पुस्तक तथा सुमन सौरभ (काव्य संग्रह) की रचना की। फिर सितम्बर 1937 में शिमला में आयोजित हिंदी साहित्य सम्मेलन में स्वागत समिति व कार्यालय के अघ्यक्ष की भूमिका निभाई। कुछ समय वर्धा के राष्ट्रभाषा प्रचार के कार्यालय में भी कार्य किया। सन 1938 में सुमन जी का विवाह सुश्री विनय लक्ष्मी जी से हुआ था। जब वह टिहरी जनता की परेशानियों के लिये बनारस, शिमला, लुधियाना तथा अन्य जगह की यात्राएं कर रहे थे आधिवेशनों में भाग ले रहे थे, तभी टिहरी के राजा ने उनसे जुड़ी संस्थाओं पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया था। तब विवश होकर अपने आगे के कार्यक्रम स्थगित कर मई 1940 में टिहरी वापस लौटना पड़ा। सन सितम्बर 1942 देहरादून जेल में बंद कर दिये गये। फिर आगरा जेल भेज दिये गये, लौटकर टिहरी वापस आये। उस समय तक टिहरी में राजशाही के विरूद्ध छात्र आन्दोलन भी पनपने लगा था। इससे पूर्व दो बार राज्य से उनका निष्कासन हुआ 30 दिसम्बर 1943 को फिर 21 फरवरी को जेल भेज दिये गये, जहाॅ उपवास रखा। राजा ने तथा उनके दरबारियों ने उन्हें इस मार्ग से हटने के लिए, माफी मांगने के लिये अनेक प्रलोभन दिये तथा असफल होने पर उनहें डराया, धमकाया भी। लेकिन न मानने पर अंत में, अनेक झूठे आरोप लगा कर, झूठे गवाहों के माध्सम से उन्हें राजा की पुलिस ने गिरफतार कर लिया। राजमहल की पहाड़ी के ठीक समाने लगभग ढेड़ किलोमीटर दूर भिलंगना के जबर्दस्त शोर के ऊपर सुनसान निर्जन स्थान पर जिससे उन पर आठों पहर नजर रखी जा सके, एक मात्र जर्जर अंधेरी काल कोठरी में उनके कमजोर शरीर पर 36 सेर वजन की भारी बेड़ियाॅ हाथ पाॅव गले में डालकर कैद कर दिया गया। जब राजशाही के जुल्म नहीं रूके तब उन्होंने उस काल कांठरी में ही 3 मई 1944 को आमरण अनशन प्रारम्भ कर दिया। 84 दिन के ऐतिहासिक आमरण अनशन के बाद वे चल बसे लेकिन राजशाही के सामने घुटने नही टेके। राजा के निर्देश पर 25 जुलाई की अर्ध रात्री में जब मूसलाधार बारिश हो रही थी बिना किसी को बताये उनको शव को भिलंगना की लहरों के हवाले कर दिया गया था। भिलंगना फिर भागीरथी के तल में वे कहीं समा गये, तब किसने सोचा था एक दिन जिस टिहरी के लिए उन्होंने अपना बलिदान दिया था उसी टिहरी को भी उनकी तरह ही जल में समाना पड़ेगा।आज मौन खड़े होकर जब भागीरथीपुरम से अथाह जल राशी में डूबे टिहरी को तलाशने का प्रयत्न करता हूॅ सहसा उनकी लिखी कविता आॅखों में कहीं तैरनेे लगती है----आज क्यों फिर मौन होकर- देखते खाली तमाशा ऐ लाडले गड़देश की क्या पूर्ण होगी अब न आशा गढ़ भूमि शुचि भागीरथी माॅ आज क्यों तू रो रही है आंसुओं से हरित आंचल मौन बन क्यों धो रही है मानस सरों में दुग्ध तेरा आज लहरें ले रहा है आज प्यारा वत्स तेरा प्राण की बलि दे रहा है। यूॅ तो टिहरी के स्वतन्त्रता आन्दोलन और राजशाही के विरूद्ध आन्दोलन में नागेन्द्र सकलानी, मोलू सिंह भरदारी के बलिदान को भी भुलाया नहीं जा सकता कभी लेकिन यह भी तय है कि ‘‘जब तक गगन में सूरज चाॅद रहेगा, सुमन अमर तुम्हारा नाम रहेगा।‘‘ बाद में सरकार ने उनकी स्मृति में टिहरी बाॅध का नाम ‘सुमन सरोवर‘ तथा ‘श्रीदेव सुमन विश्वविद्यालय‘ स्थापित कर सम्पूर्ण गढ़वाल की ओर से अपने श्रृद्धासुमन अर्पित किये। प्रसिद्ध स्वतन्त्रता सेनानी स्व. श्रीराम शर्मा ‘प्रेम‘ की उनपर लिखी कविता उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि कही जा सकती है- ओ यतीन्द्र पथ-पथी तुझे शत-शत प्रणाम, शतशः प्रणाम ओ भारत के मैक्सिविनी, तुझे शत-शत प्रणाम, शतशः प्रणाम। तुुमने समझा था हॅसी-खेल माँ के हित मरना,मिट जाना तुमने सीखा था तूफानों में हँसते-हँसते घुस जाना कारा की काली कोठरियों में घुट-घुट कर मिटने वाले मिटकर भी तू अमिट। मिटेंगे,तुझे मिटाने वाले।

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