कारगिल विजय दिवस पर यात्रा संस्मरण
-द्रास-कारगिल-लेह से गुजरते
हेमचंद्र सकलानी
विकासनगर। श्रीनगर में घटित सोफिया कांड के कुछ माह बाद हम लम्बी कश्मीर यात्रा पर निकले थे। कुछ दिन श्रीनगर में ठहरने के बाद वहां के हालात देख अब वहां ठहरना उचित नहीं समझ रहे थे क्योंकि वहॉ की स्थिति देख हम बहुत व्यथित हो उठे थे। श्रीनगर बस स्टैण्ड, ठीक शंकराचार्य पहाड़ी के नीचे है। वहॉ से द्रास कारगिल के लिए एक ही बस है जो सुबह सात बजे चलती है। शहर के बीच में से जीप का गुजरना हमें दहशत में भर रहा था। कारगिल, द्रास, टाईगर हिल, के उन स्थानों को जहॉ भारतीय फौज ने उन विषम दुर्गम परिस्थितियों में दुश्मन मार भगाया था को देखना, महसूस करना मेरे जीवन का लक्ष्य था। कई वर्षों से सोच रहा था कि वहॉ जरूर जाऊॅगा। साढ़े सात बजे हमारी बस श्रीनगर शहर के बीच से आगे बढ़ रही थी। बड़ा सन्नाटा पसरा हुआ था चारों ओर। महाराज हरी सिंह पैलेस से गुजरते हैं फिर हजरतबल, मनसबल, उपनगरों से होकर गंडरबल पहुॅचते हैं (जो आतंकवादियों की करतूतों के कारण इन वर्षों में काफी चर्चित रहे हैं) वसूल से हम तनबरक नदी के साथ चलते हैं। मुख्य शहर श्रीनगर से बाहर खेतों में धान रोपते स्त्री पुरूष जगह-जगह दिखाई पड़ते है। चारों ओर गगन चूमते हिमाच्छादित शिखर हैं। श्रीनगर घाटी और डल झील के विस्तार और सुन्दरता का वास्तव में कोई जवाब नहीं है। कंगन नामक गॉव के पास धान के खूबसूरत खेत हैं। मकानों का शिल्प देखने योग्य है। पुराने शिल्प में आधुनिकता जोड़ कर सुन्दरता का नया रूप देखने को मिलता है। निसंदेह मकानों की खूबसूरती में जम्मू-कश्मीर का कोई जवाब नहीं है। पुराने शिल्प में एक से बढ़कर एक आधुनिक मकान देखने को मिलते है। कंगन काफी समृद्व गॉव है। पी.डब्लू.डी. का खूबसूरत गैस्ट हाउस है। बैंक, चिकित्सालय, पोस्ट आफिस, स्कूल सभी कुछ हैं यहॉ। बादाम, अखरोट, सेब के बागों की भरमार है। यहां चिनार, कश्मीर का बेहद खूबसूरत वृक्ष बहुत तादात मे दिखाई पड़ते है। पतों का हरा चमकीला रंग मन को मोह लेता है। हमारे गढ़वाल कुमाऊं में जो स्थान देवदार का है वही कश्मीर घाटी में चिनार का है। आगे भामर गॉव के छोटे से बाजार में चाय, पकौड़ियों का आनन्द लेते हैं। कल-कल करती एक जल धारा पास से गुजर रही है। दूर पहाड़ी से एक खूबसूरत फेनिल प्रपात उतरकर नदी में मिलता है। यहॉ से कारगिल 186 कि.मी. है तथा लेह 386 कि.मीटर। शिखर पर चढ़कर बस नीचे उतरती है। हरी भरी घाटी के बीच गुजरते मार्ग से गुंड गॉव, कलन गांव होकर फूलन गांव पहुंचते हैं और फिर सोनमर्ग की ओर बढ़ते हैं। चारों ओर हिमाच्छादित पर्वतों की घाटी में श्रीनगर से लगभग 84 किलोमीटर दूर हरी भरी खूबसूरत घाटी में स्थित है सोनमर्ग। पहाड़ के नीचे ढलान पर हरे भरे वृक्ष हैं तो पर्वतों के शिखर हिमच्छादित हैं। घाटी के ठीक मध्य से गुजरता है सोनमर्ग-लेहमार्ग। खूबसूरत सफेद बादल ऐसे लगते हैं जैसे सैर के लिए निकले हैं। यात्रियों, पर्यटकों के लिए पहाड़ी की खूबसूरत ढलान पर वृक्षों के बीच छोटे-छोटे कॉटेज बने हुए हैं। सड़क के दोनों और ढाबे, दुकानें हैं। यहॉ श्रीनगर, लेह से आने जाने वाले यात्री तथा उनके वाहन कर्मचारी ठहरते हैं। इस खूबसूरत प्रकृति की सुन्दरता से भरपूर घाटी में थोड़ा घूमने निकलते है, थोड़ा फिर विश्राम सा करते है। सोनमर्ग नदी के सुन्दर प्रवाह में थोड़ी देर के लिए खो जाते है। सोनमर्ग को जी भर देखने के बाद आगे बढ़ते हैं।
गमीर गॉव, सुरकरी गॉव बड़े शहरों से बहुत दूर होने के बाद भी काफी समृद्व गॉव है। एक समृद्व गॉव में जिससे उसकी सम्पन्नता का पता चलता है वो सभी कुछ है यहां। पहली ही नजर में पता चल जाता है कि यह बहुत परिश्रमी और मेहनती लोगों के गॉव हैं। होटल, छोटा बाजार, पर्यटकों के लिए खूबसूरत हट हैं। दो दिन पूर्व ही थोड़ा सा ऊपर बहुत बर्फबारी हुई थी। तब आशा नहीं थी कि जोजिला पास हमें खुला मिलेगा, पर हमारी किस्मत अच्छी थी। जैसे-जैसे हम ऊपर चढ़ते हैं, 8 हजार, 9 हजार, 10 हजार 11 हजार, 12 हजार फुट की ऊॅचाई तक चारों ओर हमारे बर्फ का साम्राज्य पसरा नजर आता है। कुछ ही देर बाद हम बालटाल के ऊपर खड़े नजर आते हैं। दूर नीचे घाटी में संगम नदी के किनारे हरे भरे मैदान में कैम्प लगे हुये है। जहॉ अमरनाथ जाने वाले यात्री, विश्राम करते हैं। इस स्थान पर आर्मी के डाक्टर रहते है और चलता फिरता चिकित्सालय यात्रा सीजन के दौरान रहता है। सामने तीन किलोमीटर तक पगडण्डी जाती है। जिसके किनारे किनारे संगम नदी का खूबसूरत प्रवाह मन को मोह लेता है। फिर अमरनाथ यात्रा की बर्फीले पर्वत की चढ़ाई शुरू हो जाती है। बालटाल बेस कैम्प से अमरनाथ गुफा चौदह किलोमीटर दूर रह जाती है।
अब हम विश्व विखयात जोजिला पास (दर्रे) की ओर बढ़ रहे हैं। पर इससे पूर्व सामने आ रहे कम्यून आर्मी के लश्कर को निकलने के लिए सारे वाहन बर्फ के बीच एक किनारे खड़े हो जाते है। गाड़ी से नीचे उतरते हैं। बालटाल के उपर काफी दूर इधर उधर घूम कर प्रकृति की सुंदरता का आनन्द उठाते हैं। चारों ओर सफेदी है। आसमान पर सफेद बादलों का राज्य है तो धरती पर श्वेत बर्फ का। यहॉ पर गेट सिस्टम लागू है। एक बार में सिर्फ लेह लद्दाख से आने वाले वाहन गुजरते हैं। दूसरी बार फिर श्रीनगर से कारगिल लद्दाख जाने वाले वाहन गुजरते हैं। कुछ देर बाद कोकरन ब्रिज से आगे बढ़ते हैं। धूप के यहां दर्शन नहीं होते हैं। जोजिला दर्रे की समुद्र तल से ऊँचाई साढ़े बारह हजार फुट है। मगर बर्फ इतनी है जितनी गोमुख चौदह हजार फुट में भी नहीं दिखाई पड़ती। बर्फीले रास्ते के बीच घबराहट होने लगती है। आक्सीजन कम होने के कारण समझ नहीं पा रहे थे कि हम सांस भी ले रहे हैं या नहीं। लोगों ने काफी डरा दिया था कि सांस लेने में तकलीफ होती है। आक्सीजन की कमी के कारण मैने अपनी कभी कोई यात्रा स्थगित नहीं की थी। अपनी विभिन्न यात्राओं के दौरान मैं चौदह हजार फुट की ऊंचाई, गोमुख, रोहतांग, माणा, राड़ी का डाण्डा, चम्बा, औली के कई शिखरों तक गया था। फिर सोलह वर्ष पहले, तब से लेकर अब तक काफी अन्तर आ गया था स्वास्थ में उम्र में,आज डर अवश्य लग रहा था। स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई परेशानी नहीं लग रही थी। जैसे जैसे जोजिला दर्रे की बर्फ से आच्छादित पहाड़ी पर चढ़ रहे हैं, ठण्ड बढ़ने लगती है। सूर्य की रोशनी, गर्मी का कहीं नाम निशान नहीं है। जोजिला दर्रे मे उतर कर एक घंटे विश्व के इस दुर्गम से दुर्गम स्थान पर थोड़ा समय व्यतीत कर अपने को विश्वास दिलाने का प्रयास करते हैं कि हम इस समय उस स्थान पर हैं जहां आने का जोखिम हर कोई् नहीं उठा सकता। न सूर्य की रोशनी, न गर्मी का अहसास। अब हम कश्मीर घाटी को छोड़ लद्दाख रीजन में प्रवेश कर रहे हैं, ठण्ड एकदम से बढ़ने लगती है। बर्फीली हवाएं चल रही हैं। विश्व के सबसे अधिक ठण्डे और सर्द स्थानों मे से एक है द्रास। जैसे-जैसे द्रास घाटी में द्रास नदी के सहारे घुमावदार मार्ग से गुजरते हैं चारों ओर सड़क, पहाड़, नदी सब बर्फ से ढके नजर आते हैं। द्रास के बाजार से अभी हम दस किलोमीटर पहले द्रास घाटी में धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे है। द्रास नदी कई जगह जम गयी है। इस समय हम विश्व के दूसरे सबसे बड़े ठण्डे स्थान में है। यहां टैम्पचर 35 से 40 डिग्री माइनस तक रहता है। जून के महीने में भी आज यहां बर्फ गिर रही है। वहीें दूसरी ओर गगन चूमती हिमाच्छादित चोटियां हैं। यहां से कुछ किलोमीटर दूर पाकिस्तानी सीमा है। द्रास घाटी में भारत पाकिस्तान के बीच भयंकर युद्व हुआ था। उत्तराखण्ड के अनेक सैनिकों ने यहॉ अपने प्राण न्यौछावर किये थे। श्रीनगर से द्रास सैक्टर की दूरी 150 किलोमीटर है। द्रास से कुछ पहले एक मार्ग मुस्कान 46 किलोमीटर, एक सेमको 138 किलोमीटर, एक पद्म 331 किलोमीटर तथा एक बटालिक सैक्टर 156 किलोमीटर को जाता है। बटालिक वही रण क्षेत्र है जहॉ भारत पाक सेना में भयंकर युद्व हुआ था। द्रास से कारगिल मात्र 50 किलोमीटर रह जाता है। द्रास से कुछ किलोमीटर पहले झीलें नदियॉ से बर्फ जमी हुई हैं।
भारतीय सेना के जवान ऐसे मौसम में जब तापमान शून्य से 35-40 डिग्री माइनस तक चला जाता है कदम-कदम पर खड़े या गश्त करते नजर आते है। दाएं ओर हमारी जो ऊंची बर्फीली पर्वत श्रृंखलाएं हैं ठीक उनके पीछे कुछ दूरी पर पाकिस्तान की सीमा प्रारम्भ हो जाती है। सर्दियों में दस दस फुट तक बर्फ से ढक जाता है यह क्षेत्र। यही द्रास सैक्टर पाकिस्तान के साथ युद्व के मुख्य केन्द्रों में से एक था। कारगिल द्रास बटालिक युद्व के बाद सैन्य गतिविधियों की दृष्टि से यह लद्दाख का क्षेत्र काफी महत्वपूर्ण हो गया है। एक ओर इसकी सीमाएं पाकिस्तान से तो दूसरी ओर चीन से मिलती हैं। बर्फ रूई की तरह हवा के साथ बह रही है और गाड़ी के शीशों पर जमने लगती है। बर्फ का साम्राज्य पसरा हुआ है। अब हरियाली कहीं कहीं दिखाई पड़ती। युद्व के बाद से अब जगह-जगह आर्मी के बेस कैम्प, टैन्ट, गाड़ियां दिखाई पड़ती हैं। जिसे देखने की इच्छा से यहॉ आया था, उसे देखकर गर्वित हो उठता हूँ। मेरे ठीक सामने हिम से आच्छादित टाईगर हिल है। यह वही पर्वत श्रृंखला है जहॉ भारतीय फौज ने तिरंगा लहरा कर कारगिल युद्व की विजय पताका फहरायी थी। काफी आगे जाकर फोटोग्राफ्स लेता हूँ। द्रास कारगिल युद्ध में 534 सैनिकों तथा अफसरों ने अपने प्राणों की आहुति दी थी। जिसमें अकेले उत्तराखंड के 170 वीरों ने अपनी शहादत दी थी। आस-पास में यह सबसे ऊॅची और सबसे अधिक बर्फ से आच्छादित पर्वत श्रृंखला है। बत्रा ट्रांजिट कैम्प से गुजरते हुए बर्फीला इलाका समाप्त हो रहा है। थोड़ी देर मे द्रास के छोटे से मगर मुख्य बाजार में पहुॅचते हैं। अब थोड़ा हरियाली और पेड़ों के दर्शन हो रहे हैं।
लो ग्रेट हिमालयन रेंज, जानसर हिल रेंज, काराकोरम रेंज पर्वत श्रंखलाओं के साथ सियाचिन, रिमो, तथा रिवारी जैसे विश्व प्रसिद्व ग्लेशियर लददाख की धरती पर हैं। यहां की प्रमुख नदी सिन्धु है तथा इसकी दो सहायक नदियां द्रयोक और न्यूबरा हैं। लददाख अपनी खूबसूरत झीलों के लिए भी विश्व मे प्रसिद्व है। इनमे प्रमुख हैं टसोमारी झील, टसोकर झील, पेन्गोंग झील। अनेक उष्ण जल स्रोत पुगार, पनामिक इसी धरती पर हैं। लेह से गुजरने वाले प्रमुख राष्ट्रीय राज मार्ग हैं लेह-टरटिक मार्ग, खरदूंगला मार्ग, लेह-श्रीनगर मार्ग, लेह-मनाली मार्ग, लेह-टंगस्टसे मार्ग, चुसूल-लेह मार्ग, कयारी-फैक्चथिसे मार्ग आदि जो गगन चुम्बी हिमच्छादित दर्रों से गुजरते हैं।
लददाख पूर्व दिशा मे तिब्बत से तो उत्तर दिशा मे चीन से उत्तर पश्चिम दिशा मे गिलगिट तथा सकारह जिले जो पाकिस्तान अधिकृत आजाद कश्मीर से, तीन ओर से घिरा हुआ है। जिस कारण सामरिक दृष्टि से यह बहुत ही संवेदनशील क्षेत्र की श्रेणी मे आता है। पश्चिमी लददाख की सीमाएं कश्मीर घाटी के बारामूला, श्रीनगर, अनन्तनाग जिलों से जुड़ती हैं। वहीं दक्षिण छोर की सीमाओं का कुछ भाग पंजाब तथा हिमाचल प्रदेश की सीमाओं से जुड़ता है। लददाख का वर्तमान भू भाग 58321 वर्ग किलो मीटर है। जबकि 1948 मे पाकिस्तान ने इसके लगभग 27555 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र पर आक्रमण कर उसे अपने अधिकार मे ले लिया। इस क्षेत्र की आबादी का घनत्व मात्र तीन व्यक्ति प्रति किलो मीटर है। इसकी सम्पूर्ण घाटी मे वनस्पति विहीन हिमच्छादित पर्वत श्रंखलाएं हैं।
सर्दी के दिनों में भारतीय सैनिक द्रास-कारगिल की ऊंची ऊंची चोटियों से नीचे उतर आते हैं इसी का फायदा उठा कर पाकिस्तानी सेना ने नियंत्रण रेखा क्रोस कर बहुत सी चोटियों पर कब्जा कर लिया था। जब एक चरवाहे ने अनजान आदमियों और सैनिकों को देखा तो नीचे आकर सैनिकों को बताया। भारतीय सैनिकों की एक टुकड़ी जब गश्त पर गयी तो पाकिस्तानी सैनिकों ने उनकी निर्मम हत्या कर दी,बस यहीं से कारगिल युद्ध की शुरुआत हुई। पाकिस्तानी सैनिकों ने ऊंची ऊंची चोटियों पर कब्जा कर रखा था और भारतीय सैनिकों को ऊंची बहुत दुर्गम चढ़ाई चढ़कर दुश्मन के ठिकानों तक पहुंचना था जो बहुत दुष्कर कार्य था। उन ऊंची चोटियों तक पीने के लिए पानी और खाना ले जाना, सैन्य सामग्री ले जाना बहुत कठिन कार्य था। प्रारम्भ में भारतीय सेना को काफी नुकसान उठाना पड़ा। पर अंततः पाकिस्तानी सेना को परास्त होकर जान बचा कर भागना पड़ा। तब से 26 जुलाई का दिन कारगिल विजय दिवस के रूप में पूरे देश में मनाया जाता है।
थ़ोडी थोड़ी देर अनेक स्थानों में द्रास कारगिल मुख्य मार्ग पर ठहर कर हम उन स्थानों को और ऊंची ऊंची बर्फीली व वनस्पति विहीन पर्वत श्रृंखलाओं को तथा इस इलाके को भरपूर नजर से देखते हैं। यह सोचते हुए अब शायद यहॉ आना कभी संभव नहीं होगा पर एक बार की यात्रा से ही अनुभव हो रहा था जैसे आज तक की सारी यात्राएं सफल हो गयी हैं। एक छोटी सी चाय की दुकान में चाय का आनन्द लेकर आगे बढ़ते हैं। जगह-जगह सेना द्वारा वृक्षारोपण किया गया है। पहाड़ों पर पीले रंग के फूल जगह-जगह खिले नजर आने लगते हैं। पास में ही द्रास बाजार में शहीदों की स्मृति में निर्मित बार मेमोरियल गेट है। यहां प्रति वर्ष 26 और 27 जुलाई को विजय दिवस धूमधाम से मनाया जाता है। गाड़ी हमारी अब जैसे प्लेन में दौड़ रही है। मटाईल नामक गॉव में थोड़ा ठहरते हैं। द्रौपदी कुंड से चढ़ाई शुरू हो जाती है। अब बर्फ केवल शिखरों पर दिखाई पड़ती है।
कारगिल पहुंचते-पहॅुंंचते शाम गहराने लगी है। लद्दाख के दो मुख्यालय हैं। पहला कारगिल, दूसरा लेह है। कारगिल शहर श्रीनगर से 204 किलोमीटर की दूरी पर दो भागों में विभक्त है, जो मुख्य मार्ग से तीन किलोमीटर नीचे सिन्धु और बाक्हा नदी के तट पर है। वाक्हा नदी जानसार घाटी से निकलकर आती है, और कारगिल के समीप सुरू नदी से मिलती है। कारगिल मुस्लिम बाहुल्य एरिया है। मुख्य बाजार के पीछे की ओर ऊंची-ऊंची पर्वत श्रृंखलाएं है। कहते हैं इनके पीछे से ही दिन में अचानक पाकिस्तानी सेना ने भयंकर गोलाबारी की थी। पाकिस्तानी सेना भारतीय क्षेत्र में काफी अन्दर तक घुस आयी थी। कारगिल के मुख्य बाजार में जब अच्छी खासी चहल-पहल थी उस समय बाजार के ठीक बीच में बम के गोले गिरे थे जिसमें अनेक सिविलियन्स को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। प्राचीन समय में कारगिल प्रमुख व्यापारिक केन्द्र था और यहॉ से चीन, तिब्बत, यारकंद, कश्मीर से व्यापार होता था। यहॉ से एक मार्ग तब चीन, तुर्की, अफगानिस्तान, यारकंद, बालिस्तान, श्रीनगर, जानसर घाटी से गुजरता था। कारगिल लददाख का वह महत्वपूर्ण नगर है जो सुरू घाटी, जानसार घाटी, द्रास, वाक्हा, तथा सिन्धु घाटी के निचले भागों को स्पर्श करता है। कारगिल ट्रेकिंग, रीवर राफटिंग, माऊंटेनेयरिंग के लिये विश्व में प्रसिद्ध है। रात में थोड़ा बाजार में घूमते हैं फिर एक होटल में कमरा लेकर आराम करते है।
सुबह उठकर तैयार होकर मैं बाजार के उन स्थानों के फोटोग्राफ लेता हूं जहां भयंकर बमबारी हुई थी। लेह के एक मुस्लिम भाई कारगिल में पटवारी हैं जिनसे मेरा परिचय होता है। वे लेह के रहने वाले हैं, पर सर्विस कारगिल में करते हैं। वे बताते हैं उनके परिवार के भाई, बहिन, मां, पिताजी, बच्चे, जो भी सर्विस इधर उधर करते हैं वे सब शनिवार शाम को लेह अपने घर पहुंचते हैं। फिर शनिवार इतवार का दिन सब एक साथ मिल कर व्यतीत करते है। उनकी यह बात सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा। अपने आप से पूछने लगा मैं, आखिर हमारे हिन्दू समाज में ऐसा क्यों नहीं होता, क्यों सब एक दूसरे से कटते हैं। बाहर ही नहीं परिवारों में भी।
पटवारी जी से जब कारगिल के युद्व के बारे में पूछता हूँ तो वे कहीं खो से जाते हैं। वे मुझे उन स्थानों को दिखाते है जहॉ बम गिरे थे, अनेक लोग मरे थे फिर बताते हैं हम मुसलमानों को पहले लोग भारत विरोधी समझकर कतराते थे। हमें पाकिस्तान का एजेंट समर्थक समझा जाता था। पर जब कारगिल युद्व के समय यहां कमाडिंग आफिसर अर्जुन पाराशर आये तो उन्होंने सबसे पहले मुसलमानों मौलवियों से मुलाकात की, उनसे सहयोग मांगा। क्योंकि दुर्गम पहाड़ी रास्तों से स्थानीय मुसलमान ही परिचित थे। अर्जुन पाराशर के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर सारे मुस्लिम समुदाय ने सेना की सहायता की। कारगिल के सैकड़ों मुस्लिम जवानों, ने फ्रंट पर मीलों दूर खड़ी चढ़ाई चढ़ कर सेना का पथ प्रदर्शन किया था और भरपूर सहयोग देकर एक आदर्श भारतीय होने का सबूत दिया था। अनेक जवानों ने युद्व में भाग लिया था। यही कारण है कि इस क्षेत्र द्रास कारगिल में स्थानीय लोगों के बीच अर्जुन पाराशर का नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता है। अब मुख्य सड़क का बाजार, सड़क, मकान सभी अपने रूप में आ चुके हैं। सामने दूर,बहुत दूर सूर्य की रोशनी में टाईगर हिल की चोटी दमकती दिखाई पड़ रही है। कारगिल नगर दो भागों में विभक्त है। दोनों के बीच की दूरी मुख्य मार्ग से लगभग पांच किलोमीटर है। खूब अच्छा बाजार है। स्कूल, कालेज, कोर्ट, कचहरी, पोस्ट आफिस, बैंक, होटल,टूरिस्ट लाज, सारे सरकारी कार्यालय यहॉ हैं। दो घंटे भरपूर मगर जल्दी-जल्दी में दोनों भागों में घूमते हैं। द्रास से कारगिल तक नदियों के पास हरियाली बहुत है। मुख्य सड़क से देखने पर कारगिल नगर के दोनों भाग हरियाली से ढके बड़े खूबसूरत लगते हैं, क्योंकि मटमैले मिट्टी के रंग के अलावा कुछ यहॉ दिखाई नहीं पड़ता। कारगिल के युद्व की स्मृतियां लोगों को आज भी झकझोर देती हैं। एक दुःखद स्वप्न की तरह भूलना चाहकर भी वे उसे भूल नहीं पाते।
किसी समय कारगिल का चिक्तन किला भारतीय क्षेत्र मे था। 16वीं शताब्दी मे इसे लददाख के शिल्पकारों ने इसे बनाया था। अब यह पाकिस्तान मे है। कई सदियों तक यह शाही आवास के रूप मे रहा। यह पत्थरों, चटटानों, व मिटटी की मदद से इस तरह बनाया गया था कि राजशाही परिवार को पड़ोसी राज्य के आक्रमणों से सुरक्षित रखा जा सके।
यूं तो श्रीनगर से लेकर, हिमाचल तक की पर्वत श्रृंखलाएं दर्शनीय हैं। कहीं कहीं हरियाली से भरे पहाड़ हैं तो कहीं सिर्फ सूखी खड़ी चट्टानों के नुकीले पहाड़ हैं। कहीं हिम से लदे हुए हैं तो कहीं मटमैले रंग की वनस्पति विहीन मीलों दूर तक चली गयी पर्वत श्रृंखलाएं हैं। सिर्फ नदियों के पास घाटी में हरियाली कहीं- कहीं दिखाई पड़ती है। दस बजे कारगिल को सलाम कर हम आगे बढ़ते हैं। मुलबेक नामक गांव के पास से एक पैदल मार्ग नमीकला दर्रे (पास) को जाता है। जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई 3719 मीटर है। कुछ देर बाद फोटुला गांव पहुंचते हैं। गॉव छोटे-छोटे हैं पर सम्पन्न लगते हैं। यहॉ से एक पैदल मार्ग हिमाच्छादित सिंगला पास (दर्रे) को जाता है। जिसकी समुद्र तल से ऊंचाई 5060 मीटर है। पांच किलोमीटर आगे से एक अन्य मार्ग, कंनजीला पास जो समुद्र तल से 5334 मीटर ऊंचाई पर है, से गुजरता है। मुलबेक से 52 किलोमीटर दूर लमायरू गांव और यहां से 44 किलोमीटर दूर लद्दाख का एक प्रमुख गॉव खलाटसी पड़ता है। खलाटसी, नूटला, ससपोल, बासगों गांव की कई घंटों की यात्रा के बाद हम लद्दाख के बहुत समृद्व गांव निमू पहुुॅंचते हैं। यह छोटा सा उपनगर जनसार तथा सिन्धू नदी के तट पर बसा है। यहॉ पर हमें टिहरी घनसाली के रावत जी का होटल दिखाई पड़ता है। उन बुजुर्ग सज्जन से मिल कर अच्छा लगा। वे बताते हैं चालीस पैंतालीस वर्ष पूर्व जब यहॉ कुछ नहीं था तब वे लोग आकर बस गये। तब से लेकर अब तक यहीं रह रहे है। यह अच्छा खासा समृद्व गांव है। थोड़ी देर तक निमूू गॉव में तथा सिन्धु जानसर नदी के संगम के समीप घूमने के बाद लौट पड़ते हैं। अब ज्ञांत होता है कुछ वर्ष पहले यहां भयंकर भूस्खलन हुआ था। लगभग एक घन्टे बाद हम विशाल चौड़ी घाटी के मध्य कई किलो मीटर से गुजरती खूबसूरत काली डामर रोड से (जिसका एडवरटाइसमैन्ट अनेक स्थानों पर समय समय पर टी वी में दिखाया जाता है) गुजरते हुये चारों ओर की पर्वत श्रृंखलाओं के ठीक मध्य में बसे लेह नगर पहुॅचते हैं। बौद्व धर्म की वास्तुकला, स्थापत्य कला की सुन्दरता के साथ बौद्व लोगों के मन की सुंदरता को व्यक्त करता विशाल खूबसूरत शिल्प से सुस्जित सुनहरा प्रवेश द्वार हर एक को प्रभावित करता है। दूर ये यह स्वर्ण द्वार सा चमकता है। लद्दाख, जोजिला पास, द्रास से प्रारम्भ होता है तो चीन की सीमाओं तथा हिमाचल प्रदेश की सीमाओं को छूता है। लद्दाख कितना खूबसूरत है इसे वही अनुभव कर सकता है जिसने यहॉ की यात्रा की हो। लद्दाख हिमालय तथा काराकोरम पर्वत श्रृखंलाओं के मध्य बसा लगभग एक लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है। लद्दाख का क्षेत्र ट्रांस हिमालय रेंज के नाम से भी पुकारा जाता है। लद्दाख के अधिकांश भाग में आक्सीजन की बहुत कमी है। वैसे भी इसका अधिकांश क्षेत्र वनस्पति तथा वृक्ष विहीन है। चारों ओर नंगे पहाड़ों की गगन चूमती पर्वत श्रृखलाएं हैं इस नंगेपन में भी ये अपनी अमिट छाप पर्यटकों के दिल दिमाग मन पर छोड़ती हैं। लद्दाख की सभ्यता, संस्कृति सिन्धु तथा जांनसार नदियों के तट पर प्रस्फुटित, पल्लवित, पुष्पित हुई है। तिब्बत से जुड़ा होने के कारण इतनी भारतीय संस्कृति इसे प्रभावित नही कर सकी जितनी तिब्बत की संस्कृति और बौद्व धर्म ने इसे प्रभावित किया। लेकिन फिर भी यहॉ आकर तथा हिन्दी का प्रचार-प्रसार देख, यह कहीं नहीं लगता कि यह हमारी संस्कृति, सभ्यता, बोलचाल, भाषा शैली, आदि से अलग है जबकि बौद्व संस्कृति यहां के कण-कण में बसी है।
लददाख 10 से 25 हजार फुट की ऊॅचाई पर स्थित है तथा काराकोरम की बर्फिली पर्वत श्रंखलाओं से घिरा हुआ है। अपने अपने समय मे यहां अनेक राजाओं ने तथा धर्म उपासकों ने अनेक बौद्व मठ, गोम्फा, मंदिर, गुुफाएं, स्तूप आदि बनवाये थे। माना जाता है सम्राट अशोक ने यहॉ अपने अनुयायिकों को बौद्व धर्म के प्रचार प्रसार के लिए 273-236 ईशा पूर्व भेजा था। राजा नारवरी सान्यो ने 127 ई.सदी पूर्व पूरे तिब्बत पर अधिकार जमाया था। उनके बाद उनके वंशजों ने लददाख मे अनेक प्रसिद्व बौद्व मठों का निर्माण कर यहॉ बौद्व धर्म को फैलाया। इसके बाद हम यहॉ के सबसे बड़े और प्रसिद्व मठ का नाम अल्ची चोस्कर है पहुंचते हैं जिसका निर्माण लगभग एक हजार वर्ष पूर्व खिंचेग जांगपो ने कराया था। इसमे विभिन्न रंगों मे उत्कीर्ण 11वीं, 12वीं शताब्दी की मॉ सरस्वती की भव्य प्रतिमा दर्शनीय है। एक अन्य लिकिर मठ का निर्माण पालगाइगोन नामक राजा के पुत्र तथा पॉचवे राजा ल्हाचेन ग्वालपों द्वारा 1050ई ़से 1080 ई़ के मध्य कराया गया था। वह एक दृड़ एवं संस्कारी राजा था। जिसने लददाख मे बौद्व सांस्कृतिक धरोहर को और सुदृड़ किया। इसी प्रकार दानला बौद्व मठ का निर्माण एक हजार वर्ष पूर्व लामा रिनचेन जंगपो के समय हुआ था। यहॉ महा करूणा (अवलोकितेश्वर) की ग्यारह मुखी प्रसिद्व प्रतिमा जो लगभग बीस फुट उॅची है सबको आकर्षित करती है। 11वीं 12वीं शताब्दी मे स्थापित स्पीटिक मठ तथा इसकी शाखा मठों के मंदिरों के भित्ति चित्र दर्शनीय हैं। राजा ग्रेगरचा बुम इदे ने, स्टोड क्षेत्र लेह सहित पर 1400 से 1430 ई़़. सदी तक राज्य किया, और लेह को अपनी पहली राजधानी बनाया। इसने प्रसिद्व लाल मंदिर का निर्माण कराया जिसके अन्दर भव्य आकर्षक 'बुद्व मैत्रेय' की लगभग तीस फुट उॅची प्रतिमा है। जिसके दोनों ओर भगवान अवलोकितेश्वर और मंजु श्री की प्रतिमाएं हैं। इसके बाद 1517 तक का काल काफी उथल पुथल भरा रहा। 1600 ई. मे धर्म राज सेन्गे नामग्याल शासक ने आस पास के छोटे छोटे राज्यों पर विजय पायी तथा कई मठों के साथ उसने नौ मंजिला लेह कोट का निर्माण कराया। ''द्रो'' मे प्राचीन किला तथा मंदिर है। डेन्डन नामन्याल ने 1620 ई. से 1645 ई. के मध्य मे - की महान बुद्व प्रतिमा तथा मणि दीवार बनवायी थी। जिसके प्रारम्भ मे 'विजय स्तूप' तथा अन्त में 'प्रकाश स्तूप' बनवाये। लेह से 18 किलोमीटर दूर प्रसिद्ध थिकसे मौनेस्ट्री है। इसमें भगवान बुद्व की तिमंजिली नुमा ताम्र प्रतिमा देखने योग्य है। चोटी पर स्थित थिकसे मठ की स्थापना पाइदान द्रोराब द्वारा की गयी थी। 15वीं 16वीं सदी के चित्र, तांत्रिक विधाओं के रेखा चित्र, प्राचीन मूल्यवान वस्तुएं मंदिर मे स्थित हैं। सबसे अधिक प्रशंसनीय 84 सिद्वान्तों के रेखा चित्र हैं। सेन्गे नामग्याल द्वारा लददाख के समस्त मठों मे से सबसे प्रसिद्व एवं भव्य मठ 'हेमिस मठ' की स्थापना 1602 ई. मे की गई थी। देखने में शाक्य कुमार गौतम के जीवन काल की घटनाओं को दोहराते चित्र सजीव से लगते हैं। यहॉ सोने चांदी से निर्मित अनेक स्तूप, धनकाएं, बहुमूल्य वस्तुओं तथा ताम्र पत्र से निर्मित भगवान बुद्व की खूबसूरत प्रतिमा को देखा जा सकता है। बाद मे मुगलों के आगमन से यहॉ की कला संस्कृति थोड़ा प्रभावित अवश्य हुई थी। वर्तमान मे भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग, लददाख के धार्मिक स्मारकों, भित्ति चित्रों, मूर्तियों तथा प्राचीन कलाकृतियों को संरक्षित रखने के कार्य में महत्व पूर्ण भूमिका निभा रहा है।
यहां जगह-जगह बौद्व मठों, मोनस्ट्री गोम्पा, बौद्व विहारों के दर्शन पहाड़ियों के ऊपर होते हैं। जहॉ वर्ष में बोधोत्सव, बड़े उमंग से लोग मनाते हैं। तरह-तरह के मुखौटे लगाकर नाटक, नृत्य नाटिकाएं लोक नृत्य आदि प्रस्तुत करते हैं। लद्दाख को हिमालय के दर्रो की धरती कहा जाता है। हिमाच्छादित दर्रे लद्दाख की पहचान हैं। इन्हीं दर्रो से विश्व के सबसे ऊंचाई वाले मार्ग गुजरते हैं। खरदूंगा पास विश्व का सबसे ऊंचाई वाला मार्ग पहले नम्बर पर है जो 18533 फुट की अधिक ऊॅचाई से गुजरता है। सुबह हम टैक्सी से लेह से पैंतालीस किलो मीटर दूर खरदूंगला दर्रे की ओर चल देते हैं। कुछ ही दूर आगे निकलते हैं कि बादलों के कारण आगे कुछ भी दिखना मुश्किल हो गया था। दो घन्टे बर्फ के बीच बर्फ के उपर चलते रहने के बाद टैक्सी एक जगह रूक जाती है। सड़क के किनारे फौजियों का टैन्ट लगा है पास मे ही पत्थरों से कमरे बनाये गये हैं। इस समय हम सड़क मार्ग मे विश्व के सबसे उॅचे स्थान पर हैं यह जानते हुए भी विश्वास नहीं हो पा रहा है। फौजियों ने चारों ओर रंगबिरंगी झण्डियां लगा रखी हैं जो उस वातावरण मे बेहद खूबसूरत लग रही थीं। हमारे चारों ओर कोहरा बादल है, बर्फ ही बर्फ चारों ओर दिखाई पड़ रही है। ठण्ड इतनी, हवा इतनी ठण्डी कि व्यक्त करना मुश्किल। हवा जैसे कपड़ों को उड़ा ही ले जायेगी। इससे पहले कि हमें आक्सिजन की कमी से कोई परेशानी हो आर्मी के जवान हमे चाय पिला कर जाने के लिए कहते हैं। वहॉ तक पहुॅचने पर हमे इतनी प्रसन्नता हो रही थी जैसे एवरेस्ट चढ़ने की खुशी हमे हो रही हो। सच भी है कभी हमने न तो सोचा था न कभी कल्पना की थी कि हम कभी यहां तक पहुंचेंगें।
विश्व का दूसरा सबसे उॅचाई से गुजरने वाला मार्ग चालंगा दर्रे से 17581 फुट ऊंचाई से गुजरता है। जो कार- पन्गोंग मार्ग कहलाता है। तीसरा मार्ग सबसे अधिक उॅचाई से गुजरने वाला मार्ग लेह और डोबरिंग के बीच 17331 फुट की उॅचाई से गुजरता है। अपनी अनूठी सुन्दरता के कारण, प्राकृतिक सौंदर्य के कारण ही दुनिया में लददाख को जाना जाता है। लद्दाख बौद्व धर्म के अनुयायियों का पवित्र स्थान है। दूसरी सदी में यहॉ बौद्व धर्म का अवतरण हुआ था। लद्दाख 9000 फुट से 250000 फुट तक की ऊॅचाई पर स्थित है। बौद्व लोगों की व्यापक जनसंखया, मठों, गोम्पा, मौनस्ट्री और बौद्व धर्म की संस्कृति में लद्दाख इतना घुल मिल गया कि इसे छोटा तिब्बत भी कहा जाता है। जगह-जगह बौद्व मठों आश्रमों के यहॉ दर्शन होते हैं, जहॉ हर वर्ष त्यौहार उत्सव मनाये जाते हैं। स्थानीय बौद्व लोग तरह-तरह के मुखौटे लगाकर नृत्य, नाटक के साथ लोक गीत, लोक संगीत इन त्यौहारों, उत्सवों में प्रस्तुत करते हैं। शाम होते होते हमें काफी थकान हो जाती है। तब शेष कार्यक्रम दूसरे दिन के लिए छोड़कर हम लेह से 5 कि.मी. दूर आई.एस.बी.टी. कैम्प चोगलनसार के रैस्ट हाउस में रात्री विश्राम के लिये रूकते है। भारत सरकार ने इस क्षेत्र के सामरिक महत्व को देखते हुए लगभग पॉच सौ किलोमीटर तक का रेल ट्रेक बिछाने की स्वीकृति प्रदान की है। यह रेलवे ट्रैक लगभग साढ़े सोलह हजार फुट से,विश्व के सबसे ऊॅचाई से, गुजरने वाला रेलवे ट्रैक होगा जो अनेक पुल तथा सुरंगों से इस क्षेत्र को देश के अन्य भागों से जोड़ेगा, तब इस क्षेत्र की यात्रा बहुत सुगम और सुंदर हो जायेगी।